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हम भारतीयों में आजकल एक नयी कुरीति का जन्म हो गया है और वो है "मेरा धर्म सबसे बड़ा (श्रेष्ठ) नीचे इसके कुछ उदाहरण है


  • बनिया कंजूस होता है, 
  • नाई चतुर होता है,
  • ब्राह्मण धर्म के नाम पे बेबकूफ बनाता है,
  • राजपूत अत्याचारी होते हैं,
  • चमार गंदे होते हैं,
  • जाट और गुर्ज्जर बेवजह लड़ने वाले होते हैं,
  • मारवाड़ी लालची होते हैं.


और ना जाने ऐसी कितनी परम ज्ञान की बातें सभी हिन्दुओं को आहिस्ते - आहिस्ते सिखाई गयी !

नतीजा

 हीन भावना, एक दूसरे जाती पर शक, आपस में टकराव होना शुरु हुआ और अंतिम परिणाम हुआ की मजबूत, कर्मयोगी और सहिष्णु हिन्दू समाज आपस में ही लड़कर कमजोर होने लगा ! उनको उनका लक्ष्य प्राप्त हुआ ! हजारों साल से आप साथ थे...आपसे लड़ना मुश्किल था..अब आपको मिटाना आसान है !

आपको पूछना चाहिए था की अत्याचारी राजपूतों ने सभी जातियों की रक्षा के लिए हमेशा अपना खून क्यों बहाया ? आपको पूछना था की अगर चमार, दलित को ब्राह्मण इतना ही गन्दा समझते थे तो बाल्मीकि रामायण जो एक दलित ने लिखा उसकी सभी पूजा क्यों करते हैं ? और चाणक्य ने चन्द्रगुप्त ही क्यूँ चुने??

अपने नहीं पूछा की आपको सोने का चिड़ियाँ बनाने में मारवाड़ियों और बनियों का क्या योगदान था ?
जिस डॉम को आपने नीच मान लिया, उसी के दिए अग्नि से आपको मुक्ति क्यों मिलती है ?
जाट और गुर्जर अगर लड़ाके नहीं होते तो आपके लिए अरबी राक्षसों से कौन लड़ता ?

जैसे ही कोई किसी जाति की कोई मामूली सी भी बुरी बात करे, टोकिये और ऐतराज़ कीजिये ! इन सब भावनाओ में घिरे रहने से ना ही हम भारतवासी कभी प्रगति की तरफ नहीं बढ़ सकते हमारा प्रयास इन सब भावनाओ के खिलाफ अपने विचारो को लोगो तक पहुंचाने का होना चाहिए हम सब का कर्त्तव्य है की जाती और धर्म से ऊपर उठकर हमें अपने देश और इंसानियत को प्राथमिकता देनी चाहिए

मिडिल क्लास आदमी!

मिडिल क्लास आदमी!

हम मिडिल क्लास आदमी हैं। जब हम गोवा नहीं जा पाते तो चुप मार के अपने गाँव चले जाते हैं! एक उमर तक ना हम ढेर आस्तिक हैं ना कम नास्तिक। कुछ कुछ मौक़ापरस्त! पीड़ा में होते हैं तो भगवान को याद करते हैं। जब सब कुछ तबाह हो जाए तो भगवान को दोष देते हैं और जब मनोकामना पूरी हो जाए तो भगवान को किनारे कर देते हैं।

हम नेताओं को गरियाते हैं और एक्टरों को पूजते हैं। हम अपने नेता चुनते हैं पर उनसे सवाल नहीं कर पाते। उनको ना कोस के ख़ुद को कोसते हैं। अमिताभ और सचिन हमारे भगवान होते हैं। हमको अटल बिहारी बाजपेयी के अलावा कोई और नेता लीडर लगता ही नहीं।

हम वो हैं जो कभी कभी फटे दूध की चाय बना लेते हैं। एक ईयर फ़ोन में दोस्त के साथ रेडियो पे नग़मे सुन लेते हैं। गरमी हो या बारिश हमें विंडो सीट ही चाहिए होती है। १५ ₹/किलो आलू जब हम मोलभाव करके १३ में और धनिया फ़्री मे लेके घर लौटते हैं तो सीना थोड़ा चौड़ा कर लेते हैं।

हम कभी कभी फ़ेरी वाला समान अनायास ही ख़रीद लेते हैं। हम पैसे उड़ाते तो हैं पर हिसाब दिमाग़ में रखते हुए चलते हैं। हम दिया उधार जल्दी  वापस नहीं माँग पाते ना ही लिया हुआ जल्दी चुका पाते हैं। संकोच जैसे हिमोग्लोबिन में तैरता हो हमारे।

हम ताला मारते हैं तो उसे दो तीन बार खींच के चेक कर लेते है कि ठीक से तो बंद हुआ है ना? लाइट कटी हो तो बोर्ड की सारी स्विच ओन ओफ़ करके कन्फ़र्म करते हैं की कटी ही है। हमें ख़ुद की बिजली कटी होने पे तकलीफ़ तबतक नहीं होती जबतक पड़ोसी के यहाँ भी ना आ रही हो!

बेकरी वाला बिस्क़िट हम सिर्फ़ ख़ास मेहमानों के लिए रखते हैं।ज़िंदगी में कभी हवाई यात्रा का मौक़ा मिला तो हम उसका टिकट(बोर्डिंग पास सहित) हाई स्कूल-इण्टर की मार्कशीट की तरह सहेज के रखते हैं। हम स्लीपर ट्रेन में आठ की आठ सीटों पे बैठे यात्रियों की बात चाव से सुनते हैं और उनको अपनी तकलीफ़ और क़िस्से सुनाते हैं।

भीड़ में कोई चेहरा पसंद भी आजाए तो पलट के देखना अपनी तौहीन समझते हैं। कोई लिफ़्ट माँग ले तो रास्ते भर ये सोचते रहते हैं कि यार बैठा ही लिया होता। हम घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर बस यही हिसाब लगाते हुए आते हैं कि मकान की किश्त और घर के ख़र्चे के बाद कुछ सेविंग मुमकिन है क्या?

अपने लिए नए जूते लेने के लिए हम दस बार सोचते हैं और दोस्तों के साथ पार्टी में उससे दुगने पैसे उड़ा देते हैं। हम इमोशनल होते हैं तो रो देते हैं पर आँसू नहीं गिराते। आँसू सिर्फ़ वहींगिराते हैं जहाँ मालूम होता है कि सामने वाला आँसू चुन लेगा।

हम अपनी गलतीयों को याद नहीं करना चाहते। वाहवाही को हम ज़िंदगी से ज़्यादा सिरियस लेते हैं। हम किसी के व्यंग का जवाब उसे नज़रअन्दाज़ करके देते हैं। हम झगड़ा तबतक नहीं करते जबतक सामने वाला इतना इम्पोर्टेंट ना हो। हमें दूसरों के आगे चुप रहना पसंद है और अपनों के आगे तो हम उसे चुप करा करा के सुनाते हैं।

कोई सम्मन से बात भर कर ले हम उसे सिर चढ़ा लेते हैं और जो कोई फन्ने खाँ बना तो नज़र में!  मिडिल क्लास लोग हैं। हम सुबह का खाना शाम को भी खा लेते हैं और कभी कभी तो अगली सुबह भी। हम दारू पीते हैं तो नशे से ज़्यादा अपनी कम्पनी को एंजवाय करते हैं।

प्रेम को हम सीरियासली लेते हैं। हम जब प्रेम करते हैं और तो अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं उनपे और बना लेते एक मुकम्मल दुनिया। अपने अपने बजट से। मिडिल क्लास आदमी अपनी छोटी छोटी ख़्वाहिशों को बड़े बड़े अरमान के साथ जी लेता है।

गाने की लिरिक्स ना याद हो तो आधा गा के पूरी धुन गुनगुना लेते हैं। कभी कभी साबुन से बाल भी धुल लेते हैं। छोटी छोटी ख़ुशियों को पनीर खा के सेलेब्रेट कर लेते हैं।

मिडिल क्लास आदमी उतना ही सच्चा होता है जितनी निरछल उसकी मुस्कान। देखिएगा कभी।